देवदासी प्रथा
नमस्कार दोस्तों आज मैं आप लोगों को देवदासी प्रथा के बारे में बताने वाला हूं वैसे तो हम पिछले पोस्ट रूढ़ि प्रथा में प्रथा के बारे में विस्तृत चर्चा कर चुके हैं जिसमें मैंने आपको जन रीति और प्रथा एवं परंपरा के बारे में उनका अर्थ और परिभाषा शाब्दिक रूपों में बताने का प्रयास किया है आप चाहे तो इस लिंक के माध्यम से रुढि प्रथा को पढ़ सकते हैं
और इस पोस्ट में मैं आप लोगों को भारत में प्रचलित प्रथाओं में से एक प्रथा देवदासी प्रथा के बारे में विस्तृत जानकारी देने वाला हूं
आगे भी बहुत सारी प्रथाएं के बारे में बताऊंगा वह कैसे लागू हुआ? और उनका प्रभाव क्या रहा? और परिणाम क्या रहा? इन सब के बारे में मैं विस्तृत चर्चा करूंगा
तो आज शुरू करते हैं देवदासी प्रथा को जानना यह हमारे भारत का एक बहुत ही गंदे प्रथा कहें या कुप्रथा कहें तो शुरू करते हैं आज का लेख इस लेख को शुरू करने से पहले एक बात क्लियर करना चाहता हूँ की एक तरफ तो हम नारी शक्ति व महिला सशक्तिकरण एव महिला आरक्षण की बात करते है वही दूसरी तरफ उन्हें प्रथाओ के नाम देकर बुराई के दलदल में
धकेलने में कोई कसर नही छोड़ना चाहते इतिहास गवाह है की पुरुषो द्वारा दिखावे के लिए कई बार महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दे उठाये जाते है व वास्तविकता में उन्हें किस प्रकार कमजोर किया जाता है इतिहास में सतीप्रथा, जोगनी प्रथा, उन्ही मे से एक है देवदासी प्रथा भले ही शुरुवाती देवदासी प्रथा में महिलाओ का
अपमान व शोषण न किया जाता रहा होगा ,उन्हें केवल मंदिर के साफ सफाई व देख रेख व पूजा पाठ के लिए चुना जाता रहा होगा परन्तु कालांतर में देवदासी का अर्थ के साथ उनका कार्य व उनकी चरित्र चित्रण ही पलट गई, व उनका सभी प्रकार से शोषण किया जाने लगा
और इस पोस्ट में मैं आप लोगों को भारत में प्रचलित प्रथाओं में से एक प्रथा देवदासी प्रथा के बारे में विस्तृत जानकारी देने वाला हूं
तो आज शुरू करते हैं देवदासी प्रथा को जानना यह हमारे भारत का एक बहुत ही गंदे प्रथा कहें या कुप्रथा कहें तो शुरू करते हैं आज का लेख इस लेख को शुरू करने से पहले एक बात क्लियर करना चाहता हूँ की एक तरफ तो हम नारी शक्ति व महिला सशक्तिकरण एव महिला आरक्षण की बात करते है वही दूसरी तरफ उन्हें प्रथाओ के नाम देकर बुराई के दलदल में
धकेलने में कोई कसर नही छोड़ना चाहते इतिहास गवाह है की पुरुषो द्वारा दिखावे के लिए कई बार महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दे उठाये जाते है व वास्तविकता में उन्हें किस प्रकार कमजोर किया जाता है इतिहास में सतीप्रथा, जोगनी प्रथा, उन्ही मे से एक है देवदासी प्रथा भले ही शुरुवाती देवदासी प्रथा में महिलाओ का
अपमान व शोषण न किया जाता रहा होगा ,उन्हें केवल मंदिर के साफ सफाई व देख रेख व पूजा पाठ के लिए चुना जाता रहा होगा परन्तु कालांतर में देवदासी का अर्थ के साथ उनका कार्य व उनकी चरित्र चित्रण ही पलट गई, व उनका सभी प्रकार से शोषण किया जाने लगा
माना जाता है कि इस प्रथा की शुरुआत छठी सदी हुई थी. इस प्रथा के तहत कुंवारी लड़कियों को धर्म के नाम पर ईश्वर के साथ ब्याह कराकर मंदिरों को दान कर दिया जाता था. देवदासी प्रथा की निश्चित उत्पत्ति अभी भी अज्ञात है। की किस प्रयोजन हेतु देवदासी प्रथा प्रचलन में आई, ये ‘देवदासी’ एक हिन्दू धर्म की प्राचीन प्रथा है। देवदासी प्रथा के अंतर्गत कोई भी महिला मंदिर में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा करती थीं। ऐसा माना जाता है परतु प्राप्त दस्तावेजो और सोर्स से पता चलता है
की कोई भी अपने मर्जी से देवदासी नही बनना चाहती उन्हें किसी तरह मजबूर करके या उनके मज़बूरी का फ़ायदा उठाकर उच्च वर्ग और ब्राम्हण लोग देव दासी बनाते थे, देवता को खुश करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं। यह समर्पण एक पोट्टुकट्टु समारोह में हुआ जो कुछ हद तक एक विवाह समारोह के समान था। मंदिर की देखभाल करने और अनुष्ठान करने के अलावा, इन महिलाओं ने भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी और ओडिसी नृत्य जैसी शास्त्रीय भारतीय कलात्मक परंपराओं को भी सीखा और अभ्यास किया। उनकी सामाजिक स्थिति उच्च थी क्योंकि नृत्य और संगीत मंदिर पूजा का एक अनिवार्य हिस्सा थे। देवदासियाँ बनने के बाद, युवा महिलाएँ धार्मिक संस्कार, अनुष्ठान और नृत्य सीखने में अपना समय बिताती हैं। वे कभी-कभी उच्च अधिकारियों या पुजारियों के साथ बच्चे होते थे जो उन्हें संगीत और नृत्य में निर्देश देते थे। वे नाचने गाने जैसी 64 कलाएं सीखती थीं, लेकिन बदलते वक्त के साथ-साथ उसे उपभोग की वस्तु बना दिया गया।
की कोई भी अपने मर्जी से देवदासी नही बनना चाहती उन्हें किसी तरह मजबूर करके या उनके मज़बूरी का फ़ायदा उठाकर उच्च वर्ग और ब्राम्हण लोग देव दासी बनाते थे, देवता को खुश करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं। यह समर्पण एक पोट्टुकट्टु समारोह में हुआ जो कुछ हद तक एक विवाह समारोह के समान था। मंदिर की देखभाल करने और अनुष्ठान करने के अलावा, इन महिलाओं ने भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी और ओडिसी नृत्य जैसी शास्त्रीय भारतीय कलात्मक परंपराओं को भी सीखा और अभ्यास किया। उनकी सामाजिक स्थिति उच्च थी क्योंकि नृत्य और संगीत मंदिर पूजा का एक अनिवार्य हिस्सा थे। देवदासियाँ बनने के बाद, युवा महिलाएँ धार्मिक संस्कार, अनुष्ठान और नृत्य सीखने में अपना समय बिताती हैं। वे कभी-कभी उच्च अधिकारियों या पुजारियों के साथ बच्चे होते थे जो उन्हें संगीत और नृत्य में निर्देश देते थे। वे नाचने गाने जैसी 64 कलाएं सीखती थीं, लेकिन बदलते वक्त के साथ-साथ उसे उपभोग की वस्तु बना दिया गया।
देवदासी समुदाय के जाने-माने लोगों में भारत रत्न प्राप्तकर्ता एम एस सुब्बालक्ष्मी और पद्म विभूषण प्राप्तकर्ता बालासरस्वती शामिल हैं। इस प्रथा में शामिल महिलाओं के साथ मंदिर के पुजारियों ने यह कहकर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि इससे उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है। धीरे-धीरे यह उनका अधिकार बन गया, जिसको सामाजिक स्वीकायर्ता भी मिल गई।
उसके बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया। मुगलकाल में, जबकि राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गई।
कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है, जबकि देवदासी प्रणाली को 1988 में पूरे भारत में औपचारिक रूप से रद्द कर दिया गया था
उसके बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया। मुगलकाल में, जबकि राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गई।
कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है, जबकि देवदासी प्रणाली को 1988 में पूरे भारत में औपचारिक रूप से रद्द कर दिया गया था
देखने और निष्पक्ष विश्लेषण से ज्ञात होता है की ब्राम्ह्मो और उच्च वर्ग के धनाड्य लोग धर्म के आड़ में कुकर्म करने के लिए इस कुप्रथा का शुरुआत किये क्योकि आज तक जितने भी देवदासी बनाइ गई या बने कोई अपने स्वेक्षा से नही अपितु किसी न किसी समस्या व मज़बूरी का फायदा उठा कर इस प्रथा में आहुति दे दी गई, तथा इस भ्यावाह्क सत्य से हमे पर्दा हटाना ही पड़ेगा की आखिर क्यों लागू की गई थी
देवदासियो के प्रकार ब्राम्हणों और उनके बनाये वैदिक रीती अनुसार
1.दत्ता – जो मंदिर में भक्ति हेतु स्वतः अर्पित हो जाती थी. इन्हें देवी का दर्जा दिया जाता था और इन्हें मंदिर के सभी मुख्य कर्म करने की अनुमति होती थी.
2. विक्रिता – जो खुद को सेवा के लिए मंदिर प्रशासन को बेच देता था
, इन्हें सेवा के लिए लिया जाता था अतः इनका काम साफ सफाई आदि का होता था. ये पूजनीय नहीं होती थीं, ये बस मंदिर की श्रमिक होती थीं.
3. भृत्या – जो खुद के परिवार के भरण पोषण के लिए मंदिर में दासी का कार्य करती थीं.
इनका कार्य नृत्य आदि करके अपना पालन पोषण करना होता था.
4. भक्ता – जो सेवा भाव में पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए भी मंदिर में देवदासी का कार्य करती थीं. ये मंदिर के समस्त कर्मों को करने के लिए होती थीं.
2. विक्रिता – जो खुद को सेवा के लिए मंदिर प्रशासन को बेच देता था
, इन्हें सेवा के लिए लिया जाता था अतः इनका काम साफ सफाई आदि का होता था. ये पूजनीय नहीं होती थीं, ये बस मंदिर की श्रमिक होती थीं.
3. भृत्या – जो खुद के परिवार के भरण पोषण के लिए मंदिर में दासी का कार्य करती थीं.
इनका कार्य नृत्य आदि करके अपना पालन पोषण करना होता था.
4. भक्ता – जो सेवा भाव में पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए भी मंदिर में देवदासी का कार्य करती थीं. ये मंदिर के समस्त कर्मों को करने के लिए होती थीं.
5. हृता – जिनका दूसरे राज्यों से हरण करके मंदिर को दान कर दिया जाता था. इनको मंदिर प्रशासन अपनी सुविधा अनुसार कर्म कराता था इनकी गणना थी तो देवदासियों में परंतु वास्तव में ये गुलाम थे.
6. अलंकारा – राजा और प्रभावशाली लोग जिन कन्याओ को
इसके योग्य समझते थे उसे मंदिर प्रशासन को देवदासी बना कर दे देते थे. ये उन राजाओं और प्रभावशाली व्यक्तिओं का मंदिर को दिया गया उपहार होती थीं.
6. अलंकारा – राजा और प्रभावशाली लोग जिन कन्याओ को
इसके योग्य समझते थे उसे मंदिर प्रशासन को देवदासी बना कर दे देते थे. ये उन राजाओं और प्रभावशाली व्यक्तिओं का मंदिर को दिया गया उपहार होती थीं.
7. नागरी –
ये मुख्यतः विधवाओं, वैश्याओं और दोषी होते थे जो मंदिर की शरण में आ जाते थे. जिन्हें बस मंदिर से भोजन और आश्रय की जरूरत थी बदले में ये मंदिर प्रशासन का दिया कोई भी कार्य कर देते थे.
देवदासी प्रथा
देवदासी का पहला ज्ञात उल्लेख आम्रपाली नाम की एक लड़की का है, जिसे बुद्ध के समय राजा द्वारा नगरवधू घोषित किया गया था। अल्तेकर कहते हैं कि, "मंदिरों में लड़कियों के साथ नृत्य करने की परंपरा जातक साहित्य के लिए अज्ञात है। ग्रीक लेखकों द्वारा इसका उल्लेख नहीं किया गया है कहा जाता है कि मंदिरों में लड़कियों के नाचने की परंपरा तीसरी शताब्दी ईस्वी के दौरान विकसित हुई थी। गुप्ता साम्राज्य के एक शास्त्रीय कवि और संस्कृत लेखक, कालिदास की मेघदूत में नाचने वाली लड़कियों का उल्लेख मिलता है। 11 वीं शताब्दी के एक शिलालेख से पता चलता है कि दक्षिण भारत के तंजौर मंदिर से 400 देवदासी जुड़ी थीं। इसी तरह, गुजरात के सोमेश्वर मंदिर में 500 देवदासी थीं। 6 वीं और 13 वीं शताब्दी के बीच, देवदासी समाज में एक उच्च पद और प्रतिष्ठा थी
और असाधारण रूप से संपन्न थे क्योंकि उन्हें संगीत और नृत्य के रक्षक के रूप में देखा जाता था। इस अवधि के दौरान शाही संरक्षकों ने उन्हें भूमि, संपत्ति और आभूषण के उपहार प्रदान किए।
माता-पिता अपनी बेटी का विवाह देवता या मंदिर के साथ कर देते थे. परिवारों द्वारा कोई मुराद पूरी होने के बाद ऐसा किया जाता था. देवता से ब्याही इन महिलाओं को ही देवदासी कहा जाता था. उन्हें जीवनभर इसी तरह रहना पड़ता था. मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी देवदासी का उल्लेख मिलता है. देवदासी यानी ‘सर्वेंट ऑफ़ गॉड’. देवदासियां मंदिरों की देख-रेख, पूजा-पाठ की तैयारी, मंदिरों में नृत्य आदि के लिए थीं. कालिदास के
‘मेघदूतम्’ में मंदिरों में नृत्य करने वाली आजीवन कुंवारी कन्याओं की चर्चा की है. संभवत: इन्हें देवदासियां ही माना जाता है.
और असाधारण रूप से संपन्न थे क्योंकि उन्हें संगीत और नृत्य के रक्षक के रूप में देखा जाता था। इस अवधि के दौरान शाही संरक्षकों ने उन्हें भूमि, संपत्ति और आभूषण के उपहार प्रदान किए।
माता-पिता अपनी बेटी का विवाह देवता या मंदिर के साथ कर देते थे. परिवारों द्वारा कोई मुराद पूरी होने के बाद ऐसा किया जाता था. देवता से ब्याही इन महिलाओं को ही देवदासी कहा जाता था. उन्हें जीवनभर इसी तरह रहना पड़ता था. मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी देवदासी का उल्लेख मिलता है. देवदासी यानी ‘सर्वेंट ऑफ़ गॉड’. देवदासियां मंदिरों की देख-रेख, पूजा-पाठ की तैयारी, मंदिरों में नृत्य आदि के लिए थीं. कालिदास के
‘मेघदूतम्’ में मंदिरों में नृत्य करने वाली आजीवन कुंवारी कन्याओं की चर्चा की है. संभवत: इन्हें देवदासियां ही माना जाता है.
विष्णुपुराण के अनुसार महर्षि परशुराम (क्षत्रियों को 21 बार विनाश करके पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन करने वाले) ने पूरे होश-हवाश में अपनी ही माँ रेणुका देवी का अपने फरसे से शीश काटा था, क्योंकि इनके पिता जमदग्नि को इनकी माता के चरित्र पर किसी परपुरुष से अवैध संबंधों का संदेह हो गया था। तब से ब्राह्मण समाज ने रेणुका देवी को श्रापस्वरूप देवदासियों की देवी घोषित कर दिया जो कालान्तर में “येलम्मा” के नाम से जानी गई।
देवदासी प्रथा का सच ऐसा माना जाता रहा है कि ये प्रथा व्यभिचार का कारण बन गयी, और मंदिर के पुजारी इन देवदासियों का शोषण करते थे, और सिर्फ वही नहीं अन्य लोग जो विशेष अतिथि होते थे या मंदिर से जुड़े होते थे वो भी इन देवदासियों का शारीरिक शोषण करते थे.लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये घिनौनी प्रथा आज भी जारी है.
देवदासी प्रथा का सच ऐसा माना जाता रहा है कि ये प्रथा व्यभिचार का कारण बन गयी, और मंदिर के पुजारी इन देवदासियों का शोषण करते थे, और सिर्फ वही नहीं अन्य लोग जो विशेष अतिथि होते थे या मंदिर से जुड़े होते थे वो भी इन देवदासियों का शारीरिक शोषण करते थे.लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये घिनौनी प्रथा आज भी जारी है.
देवदासी प्रथा पर किया गया अध्ययन व रोकथाम के उपाय
हाल ही में नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU), मुंबई और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ (TISS), बेंगलुरु द्वारा ‘देवदासी प्रथा’ पर दो नए अध्ययन किये गए। ये अध्ययन देवदासी प्रथा पर नकेल कसने हेतु विधायिका और प्रवर्तन एजेंसियों के उदासीन दृष्टिकोण की एक निष्ठुर तस्वीर पेश करते हैं।
सरकार द्वारा बनाया गया कानून के प्रमुख बिंदु
1. कर्नाटक सरकार ने 1982 में और आंध्रप्रदेश सरकार ने 1988 में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया था, लेकिन मंदिरों में देवदासियों का गुजारा बहुत पहले से ही मुश्किल हो गया था।
2. 1990 में किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 45.9 फीसदी देवदासियाँ महानगरों में वेश्यावृत्ति में संलिप्त मिलीं, बाकी ग्रामीण क्षेत्रों में खेतिहर मजदूरी और दिहाड़ी पर काम करती पाई गईं।
3. आजादी के पहले और बाद भी सरकार ने देवदासी प्रथा पर पाबंदी लगाने के लिए कानून बनाए। पिछले 20 सालों से पूरे देश
में इस प्रथा का प्रचलन बंद हो चुका है। लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2013 में बताया था कि अभी भी देश में लगभग 4,50,000 देवदासियां हैं। जस्टिस रघुनाथ राव की अध्यक्षता में बने एक और कमीशन के आंकड़े के मुताबिक सिर्फ तेलंगाना और आँध्र प्रदेश में लगभग 80,000 देवदासिया हैं।
में इस प्रथा का प्रचलन बंद हो चुका है। लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2013 में बताया था कि अभी भी देश में लगभग 4,50,000 देवदासियां हैं। जस्टिस रघुनाथ राव की अध्यक्षता में बने एक और कमीशन के आंकड़े के मुताबिक सिर्फ तेलंगाना और आँध्र प्रदेश में लगभग 80,000 देवदासिया हैं।
4. सन् 1871 की जनगणना के अनुसार, हुगली जिले में असम, बिहार, उड़ीसा और बंगाल के
सभी जिलों से ज्यादा संख्या में वेश्याएं थीं। केवल 24 परगना जिले में वेश्याओं की संख्या हुगली से ज्यादा थी। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के धनी जमींदार, पुरी आते रहते थे और उनके इरादे कतई पवित्र नहीं होते थे। कई जमींदार दो-तीन महिनों तक पुरी में रहते थे
और उनकी यात्रा पर लाखों रूपये खर्च होते थे। इस खर्च की वसूली के लिए वे गैरकानूनी चुंगी या अबवाव (जैसे हतभरा महाप्रसाद व बारून्निस्नान) लगाते थे। ये बातें उड़ीसा के बालासोर जिले के कलेक्टर जॉन बीम्स ने बंगाल सरकार को 1871 में भेजी अपनी एक रिपोर्ट में कही।
सभी जिलों से ज्यादा संख्या में वेश्याएं थीं। केवल 24 परगना जिले में वेश्याओं की संख्या हुगली से ज्यादा थी। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के धनी जमींदार, पुरी आते रहते थे और उनके इरादे कतई पवित्र नहीं होते थे। कई जमींदार दो-तीन महिनों तक पुरी में रहते थे
5. वर्ष 1921 में जातिवार जनगणना के आंकड़े के अनुसार अकेले मद्रास में कुल जनसंख्या 4 करोड़ 23 लाख थी जिसमें 2 लाख देवदासियाँ मन्दिरों में थीं। यह प्रथा अभी भी दक्षिण भारत के मन्दिरों में चल रही है।
6. व्यापक पैमाने पर इस कुप्रथा के अपनाए जाने और यौन हिंसा से इसके जुड़े होने संबंधी तमाम साक्ष्यों के बावजूद हालिया कानूनों जैसे कि-यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 और किशोर न्याय (JJ) अधिनियम, 2015 में बच्चों के यौन शोषण के एक रूप में इस कुप्रथा का कोई संदर्भ नहीं दिया गया है।
भारत के अनैतिक तस्करी रोकथाम कानून या व्यक्तियों की तस्करी (रोकथाम, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक, 2018 में भी देवदासियों को यौन उद्देश्यों हेतु तस्करी के शिकार के रूप में चिह्नित नहीं किया गया है।
भारत के अनैतिक तस्करी रोकथाम कानून या व्यक्तियों की तस्करी (रोकथाम, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक, 2018 में भी देवदासियों को यौन उद्देश्यों हेतु तस्करी के शिकार के रूप में चिह्नित नहीं किया गया है।
कर्नाटक देवदासी (समर्पण का प्रतिषेध) अधिनियम, 1982 (Karnataka Devadasis (Prohibition of Dedication) Act of 1982) के 36 वर्ष से अधिक समय बीत जाने के बाद भी राज्य सरकार द्वारा इस कानून के संचालन हेतु नियमों को जारी करना बाकी है जो कहीं-न-कहीं इस कुप्रथा को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध हो रहा है।
देवी/देवताओं को प्रसन्न करने के लिये सेवक के रूप में युवा
लड़कियों को मंदिरों में समर्पित करने की यह कुप्रथा न केवल कर्नाटक में बनी हुई है, बल्कि पड़ोसी राज्य गोवा में भी फैलती जा रही है।
अध्ययन के अनुसार, मानसिक या शारीरिक रूप से कमज़ोर लड़कियाँ इस कुप्रथा के लिये सबसे आसान शिकार हैं। नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU) के अध्ययन की हिस्सा रहीं पाँच देवदासियों में से एक ऐसी ही किसी कमज़ोरी से पीड़ित पाई गई।
NLSIU के शोधकर्त्ताओं ने पाया कि सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिये पर स्थित समुदायों की लड़कियाँ इस कुप्रथा की शिकार बनती रहीं हैं जिसके बाद उन्हें देह व्यापार के दल-दल में झोंक दिया जाता है।
TISS के शोधकर्त्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि देवदासी प्रथा को परिवार और उनके समुदाय से प्रथागत मंज़ूरी मिलती है।
कुप्रथा को समाप्त करने के लिए सामाजिक संगठनों ने आंदोलन शुरू
इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए सामाजिक संगठनों ने आंदोलन शुरू किया, पर उन्हें पुजारियों और अंधविश्वासी लोगों का विरोध झेलना पड़ा। नग्न-पूजा का यह अश्लील विधान अभी भी कमोवेश जारी है। सिद्ध इतिहासकार विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े के महत्वपूर्ण ग्रंथ
‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास’, देवराज चानना की पुस्तक ‘स्लेवरी इन एंशियंट इंडिया’, एस.एन. सिन्हा और एन.के. बसु की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ प्रॉस्टीट्यूशन इन इंडिया’, एफ.ए. मार्गलीन की पुस्तक ‘वाइव्ज़ ऑफ द किंग गॉड, रिचुअल्स ऑफ देवदासी’, मोतीचंद्रा की ‘स्टडीज इन द कल्ट ऑफ मदर गॉडेस इन एंशियंट इंडिया’, बी.डी. सात्सोकर की ‘हिस्ट्री ऑफ देवदासी सिस्टम’ में यह कुप्रथा विस्तृत रूप से वर्णित है। जेम्स जे. फ्रेजर के ग्रंथ ‘द गोल्डन बो’ में भी इस प्रथा का विस्तृत ऐतिहासिक विश्लेषण मिलता है। प्रोफेसर यदुनाथ सरकार ने भी अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब’ के दूसरे भाग में देवदासी प्रथा पर विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इनके अलावा, कई इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों, मानव-वैज्ञानिकों और पत्रकारों ने इस विषय पर यथेष्ट लेखन किया है।
धारवाड़ (कर्नाटक यूनिवर्सिटी) के इतिहास के प्रोफेसर डॉ. एस.एस. शेट्टर ने देवदासी प्रथा पर व्यापक अध्ययन और शोध किया है। उन्होंने कन्नड़ में इस विषय पर फिल्म भी बनाई है।
दक्षिण भारतीय
मंदिरों में किसी न किसी रूप में आज भी दासियाँ हैं। स्वतंत्रता के बाद लगभग डेढ़ लाख कन्याएं देवी-देवताओं को समर्पित की गई थीं। चरम पर पहुंची आधुनिकता में भी यह कुप्रथा कई रूपों में जारी है।
‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास’, देवराज चानना की पुस्तक ‘स्लेवरी इन एंशियंट इंडिया’, एस.एन. सिन्हा और एन.के. बसु की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ प्रॉस्टीट्यूशन इन इंडिया’, एफ.ए. मार्गलीन की पुस्तक ‘वाइव्ज़ ऑफ द किंग गॉड, रिचुअल्स ऑफ देवदासी’, मोतीचंद्रा की ‘स्टडीज इन द कल्ट ऑफ मदर गॉडेस इन एंशियंट इंडिया’, बी.डी. सात्सोकर की ‘हिस्ट्री ऑफ देवदासी सिस्टम’ में यह कुप्रथा विस्तृत रूप से वर्णित है। जेम्स जे. फ्रेजर के ग्रंथ ‘द गोल्डन बो’ में भी इस प्रथा का विस्तृत ऐतिहासिक विश्लेषण मिलता है। प्रोफेसर यदुनाथ सरकार ने भी अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब’ के दूसरे भाग में देवदासी प्रथा पर विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इनके अलावा, कई इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों, मानव-वैज्ञानिकों और पत्रकारों ने इस विषय पर यथेष्ट लेखन किया है।
धारवाड़ (कर्नाटक यूनिवर्सिटी) के इतिहास के प्रोफेसर डॉ. एस.एस. शेट्टर ने देवदासी प्रथा पर व्यापक अध्ययन और शोध किया है। उन्होंने कन्नड़ में इस विषय पर फिल्म भी बनाई है।
दक्षिण भारतीय
मंदिरों में किसी न किसी रूप में आज भी दासियाँ हैं। स्वतंत्रता के बाद लगभग डेढ़ लाख कन्याएं देवी-देवताओं को समर्पित की गई थीं। चरम पर पहुंची आधुनिकता में भी यह कुप्रथा कई रूपों में जारी है।
विशेष फेक्ट
1. इस अश्लील तमाशे के पीछे लोगों का यह विश्वास था कि मंदिर में देवदासी के साथ प्रणय-क्रीड़ा करने से गांव पर कोई विपत्ति नहीं आती और सुख-शांति बनी रहती है। यह कुप्रथा भारत में आज भी महाराष्ट्र और कर्नाटक के कोल्हापुर, शोलापुर, सांगली, उस्मानाबाद, बेलगाम, बीजापुर, गुलबर्ग आदि में बेरोकटोक जारी है।
2. सन् 1351 में भारत भ्रमण के लिए आए अरब के दो यात्रियों ने वेश्याओं को ही ‘देवदासी’ कहा। उन्होंने लिखा है कि संतान की मनोकामना रखने वाली औरत को
यदि सुंदर पुत्री हुई तो वह ‘बोंड’ नाम से जानी जाने वाली मूर्ति को उसे समर्पित कर देती है। वह कन्या रजस्वला होने के बाद किसी सार्वजनिक स्थान पर निवास करने लगती है और वहां से गुजरने वाले राहगीरों से, चाहे वो किसी भी धर्म अथवा संप्रदाय के हों, मोल-भाव कर कीमत तय कर उनके साथ संभोग करती है। यह राशि वह मंदिर के पुजारी को सौंपती है।
यदि सुंदर पुत्री हुई तो वह ‘बोंड’ नाम से जानी जाने वाली मूर्ति को उसे समर्पित कर देती है। वह कन्या रजस्वला होने के बाद किसी सार्वजनिक स्थान पर निवास करने लगती है और वहां से गुजरने वाले राहगीरों से, चाहे वो किसी भी धर्म अथवा संप्रदाय के हों, मोल-भाव कर कीमत तय कर उनके साथ संभोग करती है। यह राशि वह मंदिर के पुजारी को सौंपती है।
3. प्रख्यात लेखक दुबॉइस ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू मैनर्स, कस्टम्स एंड सेरेमनीज़’ में लिखा है कि प्रत्येक देवदासी को देवालय में नाचना-गाना पड़ता था। साथ ही, मंदिरों में आने वाले खास मेहमानों के साथ शयन करना पड़ता था। इसके बदले में उन्हें अनाज या धनराशि दी जाती थी। प्राय: देवदासियों की नियुक्ति मासिक अथवा वार्षिक वेतन पर की जाती थी।
4. मार्च 1912 में बंगाल की विधान
परिषद में छोटा नागपुर संभाग का प्रतिनिधित्व करने वाले बालकृष्ण सहाय ने ”बच्चियों को पुरी के जगन्नाथ मंदिर को समर्पित करने की प्रथा’’ का मुद्दा उठाते हुए कहा कि, ”बड़े होने के बाद वे अनैतिक जीवन जीती हैं’’। उन्होंने सरकार से मांग की कि वह इस ”अनैतिक प्रथा का उन्मूलन’’ करने के लिए हस्तक्षेप करे (बंगाल विधान परिषद की कार्यवाही खंड 34)। औपनिवेशिक सरकार ने अपनी नीति के अनुरूप, परिषद को बताया कि वह ”हिंदू समाज द्वारा पुरी की व्यवस्था से जुड़ी बुराईयों का उन्मूलन करने के किसी भी संगठित प्रयास का अनुमोदन करेगी और उसे अपना समर्थन देगी।’’
ब्रिटिश शासकों ने ”धर्म से जुड़े मसलों में सुधार के लिए कोई स्वस्फूर्त प्रयास’’ करने से साफ इंकार कर दिया। ”द न्यूयार्क ट्रिब्यून’’ के 8 अगस्त, 1853 के अंक में छपे अपने लेख में कार्ल माक्र्स ने भारत की ब्रिटिश सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि ”वह ऐसा नहीं करना चाहती, क्योंकि वह उड़ीसा और बंगाल के मंदिरों में बड़ी संख्या में पहुंचने वाले तीर्थयात्रियों और जगन्नाथ मंदिर में चलने वाले हत्या और वेश्यावृत्ति के व्यापार से धन कमाना चाहती है
’’ (माक्र्स एंड एंजिल्स, सिलेक्टिड वक्र्स, खंड 1)। यह कोई झूठा आरोप नहीं था बल्कि तथ्यों पर आधारित झिड़की थी। इसके 74 साल बाद, सन् 1927 में, मोहनदास करमचंद गांधी ने यही बात कही: ”मुझे यह कहते हुए बहुत शर्मिंदगी महसूस होती है कि हमारे देश के कई मंदिर वेश्यालयों से अलग नहीं हैं’’ (‘यंग इंडिया’ 6 अक्टूबर 1927)। ‘द हिंदू’ अखबार ने 15 सितंबर 1927 को गांधीजी को उद्धृत करते हुए लिखा, ”उनको देवदासियां कहकर हम धर्म के पवित्र नाम पर ईश्वर अपमान करते हैं और अपनी इन बहनों का अपनी वासना पूर्ति के लिए उपयोग कर हम दोगुना अपराध करते हैं…।’’
मंदिरों में पल रही इन विकृतियों को उजागर करने वाले केवल कार्ल माक्र्स ही नहीं थे। 19वीं सदी में हुगली (अब पश्चिम बंगाल) के तारकेश्वर मंदिर
के आसपास ढेर सारे वेश्यालय थे। इस अत्यंत समृद्ध तीर्थस्थल के महंत माधवचंद्र गिरी, अपने गुंडों का इस्तेमाल कर सीधी-साधी महिलाओं को अगवा करने, बहलाने-फुसलाने और उनकी खरीद-फरोख्त करने के लिए कुख्यात थे। सन 1873 में अखबार, पुरी और तारकेश्वर मंदिरों के पंडों के कुत्सित कारनामों के विवरण से भरे रहते थे…तारकेश्वर, महिलाओं के गैरकानूनी व्यवसाय का केन्द्र था’’, तनिका सरकार, ”हिंदू वाईफ, हिंदू नेशन : कम्युनिटी, रिलीजन एंड कल्चरल नेशनलिज्म’’ में लिखती हैं।
प्रथा खत्म क्यों नहीं होती?
परिषद में छोटा नागपुर संभाग का प्रतिनिधित्व करने वाले बालकृष्ण सहाय ने ”बच्चियों को पुरी के जगन्नाथ मंदिर को समर्पित करने की प्रथा’’ का मुद्दा उठाते हुए कहा कि, ”बड़े होने के बाद वे अनैतिक जीवन जीती हैं’’। उन्होंने सरकार से मांग की कि वह इस ”अनैतिक प्रथा का उन्मूलन’’ करने के लिए हस्तक्षेप करे (बंगाल विधान परिषद की कार्यवाही खंड 34)। औपनिवेशिक सरकार ने अपनी नीति के अनुरूप, परिषद को बताया कि वह ”हिंदू समाज द्वारा पुरी की व्यवस्था से जुड़ी बुराईयों का उन्मूलन करने के किसी भी संगठित प्रयास का अनुमोदन करेगी और उसे अपना समर्थन देगी।’’
ब्रिटिश शासकों ने ”धर्म से जुड़े मसलों में सुधार के लिए कोई स्वस्फूर्त प्रयास’’ करने से साफ इंकार कर दिया। ”द न्यूयार्क ट्रिब्यून’’ के 8 अगस्त, 1853 के अंक में छपे अपने लेख में कार्ल माक्र्स ने भारत की ब्रिटिश सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि ”वह ऐसा नहीं करना चाहती, क्योंकि वह उड़ीसा और बंगाल के मंदिरों में बड़ी संख्या में पहुंचने वाले तीर्थयात्रियों और जगन्नाथ मंदिर में चलने वाले हत्या और वेश्यावृत्ति के व्यापार से धन कमाना चाहती है
’’ (माक्र्स एंड एंजिल्स, सिलेक्टिड वक्र्स, खंड 1)। यह कोई झूठा आरोप नहीं था बल्कि तथ्यों पर आधारित झिड़की थी। इसके 74 साल बाद, सन् 1927 में, मोहनदास करमचंद गांधी ने यही बात कही: ”मुझे यह कहते हुए बहुत शर्मिंदगी महसूस होती है कि हमारे देश के कई मंदिर वेश्यालयों से अलग नहीं हैं’’ (‘यंग इंडिया’ 6 अक्टूबर 1927)। ‘द हिंदू’ अखबार ने 15 सितंबर 1927 को गांधीजी को उद्धृत करते हुए लिखा, ”उनको देवदासियां कहकर हम धर्म के पवित्र नाम पर ईश्वर अपमान करते हैं और अपनी इन बहनों का अपनी वासना पूर्ति के लिए उपयोग कर हम दोगुना अपराध करते हैं…।’’
मंदिरों में पल रही इन विकृतियों को उजागर करने वाले केवल कार्ल माक्र्स ही नहीं थे। 19वीं सदी में हुगली (अब पश्चिम बंगाल) के तारकेश्वर मंदिर
के आसपास ढेर सारे वेश्यालय थे। इस अत्यंत समृद्ध तीर्थस्थल के महंत माधवचंद्र गिरी, अपने गुंडों का इस्तेमाल कर सीधी-साधी महिलाओं को अगवा करने, बहलाने-फुसलाने और उनकी खरीद-फरोख्त करने के लिए कुख्यात थे। सन 1873 में अखबार, पुरी और तारकेश्वर मंदिरों के पंडों के कुत्सित कारनामों के विवरण से भरे रहते थे…तारकेश्वर, महिलाओं के गैरकानूनी व्यवसाय का केन्द्र था’’, तनिका सरकार, ”हिंदू वाईफ, हिंदू नेशन : कम्युनिटी, रिलीजन एंड कल्चरल नेशनलिज्म’’ में लिखती हैं।
प्रथा खत्म क्यों नहीं होती?
क्योकि उच्च वर्ग और ब्राम्हण अपने भोग
विलास के लिए इस प्रथा को बंद नही करना चाहता और कमजोर वर्ग के अज्ञानता का फ़ायदा उठाकर वे इस प्रथा को जिन्दा रखे हुए है
एक अध्ययन ने यह रेखांकित किया है कि समाज के कमज़ोर वर्गों के लिये आजीविका स्रोतों को बढ़ाने में राज्य की विफलता भी इस प्रथा की निरंतरता को बढ़ावा दे रही है।
विलास के लिए इस प्रथा को बंद नही करना चाहता और कमजोर वर्ग के अज्ञानता का फ़ायदा उठाकर वे इस प्रथा को जिन्दा रखे हुए है
एक अध्ययन ने यह रेखांकित किया है कि समाज के कमज़ोर वर्गों के लिये आजीविका स्रोतों को बढ़ाने में राज्य की विफलता भी इस प्रथा की निरंतरता को बढ़ावा दे रही है।
देवदासी प्रथा के शिकार लोग और उनके दर्द
एम. एस सुब्बू लक्ष्मी
मशहूर बॉलीवुड सिंगर एम. एस सुब्बू लक्ष्मी भी देवदासी समुदाय से थी।
उनकी मां वीणावादक थीं और दादी वायलनिस्ट। कमलीबाई कहती है, “मैं अपनी गाय नहीं बेच सकती पर मैंने मेरी बेटी कावेरी को बेच दिया।”
उनकी मां वीणावादक थीं और दादी वायलनिस्ट। कमलीबाई कहती है, “मैं अपनी गाय नहीं बेच सकती पर मैंने मेरी बेटी कावेरी को बेच दिया।”
लक्ष्मम्मा
आंध्र प्रदेश की लक्ष्मम्मा अधेड़ उम्र की हैं और उनके मां-बाप ने भी उन्हें मंदिर को देवदासी बनाने के लिए दान कर दिया. इसकी वजह लक्ष्मम्मा कुछ यू बयां करती हैं, "मेरे माता-पिता की तीनों संतानें लड़कियां थीं. दो लड़कियों की तो उन्होंने शादी कर दी लेकिन मुझे देवदासी बना दिया ताकि मैं उनके बुढ़ापे का सहारा बन सकूं.” आज भी आंध्र प्रदेश में, विशेषकर तेलंगाना क्षेत्र में दलित महिलाओं को देवदासी बनाने या देवी देवताओं के नाम पर मंदिरों में छोड़े जाने की रस्म चल रही है. लक्ष्मम्मा देवदासी होने की पीड़ा जानती हैं, वो प्रथा जिसमें उन्हें खुद उनके माता-पिता ने ढकेला था.
आंध्र प्रदेश की लक्ष्मम्मा अधेड़ उम्र की हैं और उनके मां-बाप ने भी उन्हें मंदिर को देवदासी बनाने के लिए दान कर दिया. इसकी वजह लक्ष्मम्मा कुछ यू बयां करती हैं, "मेरे माता-पिता की तीनों संतानें लड़कियां थीं. दो लड़कियों की तो उन्होंने शादी कर दी लेकिन मुझे देवदासी बना दिया ताकि मैं उनके बुढ़ापे का सहारा बन सकूं.” आज भी आंध्र प्रदेश में, विशेषकर तेलंगाना क्षेत्र में दलित महिलाओं को देवदासी बनाने या देवी देवताओं के नाम पर मंदिरों में छोड़े जाने की रस्म चल रही है. लक्ष्मम्मा देवदासी होने की पीड़ा जानती हैं, वो प्रथा जिसमें उन्हें खुद उनके माता-पिता ने ढकेला था.
शारीरिक शोषण
लक्ष्मम्मा मानती हैं कि उनका भी शारीरिक शोषण हुआ लेकिन वो अपना दर्द किसी के साथ बांटना नहीं चाहतीं. देवदासियों की जन सुनवाई में शामिल और दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर विमला थोराट कहती हैं, "देवदासी बनी महिलाओं को इस बात का भी अधिकार नहीं रह जाता कि वो किसी की हवस का शिकार होने से इनकार कर सकें".
जिस शारीरिक शोषण के शिकार होने के सिर्फ जिक्र भर से रुह कांप जाती हैं, उस दिल दहला देने वाले शोषण को सामना ये देवदासियां हर दिन करती हैं.
ये दर्द इकलौती लक्ष्मम्मा का नहीं है, आंध्र प्रदेश में लगभग 30 हज़ार देवदासियां हैं जो धर्म के नाम पर शारीरिक शोषण का शिकार होती हैं. लेकिन लक्ष्मम्मा बाकी देवदासियों की तरह बदकिस्मत नहीं थीं ना ही उनमें किसी हिम्मत की कमी थी. जब लक्ष्मम्मा को मौका मिला तो न केवल वो उस व्यवस्था से निकल गईं बल्कि उसके खिलाफ संघर्ष में उठ खडी हुईं और आज वो इस व्यवस्था का शिकार बनने वाली महिलाओं के लिए आशा की एक किरण बन गई हैं.
कि मेरा भाई बीमार रहता था. अब मैं इस से निकलना भी चाहूं तो नहीं निकल सकती क्योंकि अब मुझसे विवाह कौन करेगा और फिर मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहेगा".लक्ष्मम्मा और लगभग 500 देवदासियां हाल ही में हैदराबाद में हुई एक जनसुनवाई के लिए इकट्ठा हुईं, जहां देवदासियों के हाल पर चर्चा की गई.जनसुनवाई में देवदासी महिलाओं की समस्याओं पर भी चर्चा हुई जिसमें उन बच्चों का भी जिक्र आया जो इन नाजायज़ रिश्तों की पैदाइश हैं. नाजायज़ बच्चों का हक सुनवाई में अपनी बेटी के साथ मौजूद एक देवदासी.
जिस शारीरिक शोषण के शिकार होने के सिर्फ जिक्र भर से रुह कांप जाती हैं, उस दिल दहला देने वाले शोषण को सामना ये देवदासियां हर दिन करती हैं.
ये दर्द इकलौती लक्ष्मम्मा का नहीं है, आंध्र प्रदेश में लगभग 30 हज़ार देवदासियां हैं जो धर्म के नाम पर शारीरिक शोषण का शिकार होती हैं. लेकिन लक्ष्मम्मा बाकी देवदासियों की तरह बदकिस्मत नहीं थीं ना ही उनमें किसी हिम्मत की कमी थी. जब लक्ष्मम्मा को मौका मिला तो न केवल वो उस व्यवस्था से निकल गईं बल्कि उसके खिलाफ संघर्ष में उठ खडी हुईं और आज वो इस व्यवस्था का शिकार बनने वाली महिलाओं के लिए आशा की एक किरण बन गई हैं.
देवदासियों का हाल
लक्ष्मम्मा उस पोराटा संघम की अध्यक्ष हैं जो देवदासी व्यवस्था के विरुद्ध सामाजिक जागरूकता लाने के लिए काम कर रही है. सभी लक्ष्मम्मा की तरह इस दलदल से नहीं निकल पातीं या कहें कि निकलने की हिम्मत नहीं कर पातीं. निज़ामाबाद जिले की कट्टी पोसनी भी ऐसी ही एक महिला हैं. कट्टी पोसनी कहती हैं "मेरी जो हालत है भगवान ना करे कि वो हालत किसी और की हो. मुझे केवल इसलिए देवदासी बनाया गयाकि मेरा भाई बीमार रहता था. अब मैं इस से निकलना भी चाहूं तो नहीं निकल सकती क्योंकि अब मुझसे विवाह कौन करेगा और फिर मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहेगा".लक्ष्मम्मा और लगभग 500 देवदासियां हाल ही में हैदराबाद में हुई एक जनसुनवाई के लिए इकट्ठा हुईं, जहां देवदासियों के हाल पर चर्चा की गई.जनसुनवाई में देवदासी महिलाओं की समस्याओं पर भी चर्चा हुई जिसमें उन बच्चों का भी जिक्र आया जो इन नाजायज़ रिश्तों की पैदाइश हैं. नाजायज़ बच्चों का हक सुनवाई में अपनी बेटी के साथ मौजूद एक देवदासी.
अशम्मा
एक और देवदासी अशम्मा कहती हैं, "केवल महबूब नगर जिले में ऐसे रिश्तों से पैदा हुए पांच से दस हज़ार बच्चे हैं. पहले उनका सर्वे होना चाहिए.
इन बच्चों के लिए विशेष स्कूल और हॉस्टल होने चाहिए और उन्हें नौकरी मिलनी चाहिए ताकि वो भी सम्मान के साथ जीवन बिता सकें.” इससे भी एक कदम आगे बढ़कर लक्ष्मम्मा ने मांग उठाई, "ऐसे सारे बच्चों का डीएनए टेस्ट करवाया जाए ताकि उनके पिता का पता लग सके और उनकी संपत्ति में इन बच्चों को भी हिस्सा मिल सके." लक्ष्मम्मा कहती हैं कि ऐसा करने से किसी पुरुष की देवदासी के नाम पर इन महिलाओं का शोषण करने की हिम्मत नहीं होगी.
(बीबीसी न्यूज़ मेकर्स)
इन बच्चों के लिए विशेष स्कूल और हॉस्टल होने चाहिए और उन्हें नौकरी मिलनी चाहिए ताकि वो भी सम्मान के साथ जीवन बिता सकें.” इससे भी एक कदम आगे बढ़कर लक्ष्मम्मा ने मांग उठाई, "ऐसे सारे बच्चों का डीएनए टेस्ट करवाया जाए ताकि उनके पिता का पता लग सके और उनकी संपत्ति में इन बच्चों को भी हिस्सा मिल सके." लक्ष्मम्मा कहती हैं कि ऐसा करने से किसी पुरुष की देवदासी के नाम पर इन महिलाओं का शोषण करने की हिम्मत नहीं होगी.
(बीबीसी न्यूज़ मेकर्स)
शशिमणी
ओडिशा में पुरी स्थित प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर की सबसे पुरानी देवदासी
शशिमणी के निधन के साथ ही गुरुवार को इस मंदिर में देवदासी प्रथा का अंत हो गया। शशिमणि 92 साल की थी और वह कई महीनों बीमार रही। हर देवदासी (निसंतान) को किसी भी एक नाबालिग लड़की को गोद लेकर खुद ही नृत्य तथा भक्ति संगीत की
शिक्षा-दीक्षा देकर देवदासी बना देवदासी परंपरा को जीवित रखना होता है। लेकिन शशिमणी ने ऐसा नहीं किया। शशिमणी मात्र 12 साल की छोटी सी उम्र में देवदासी बन गई थी। अपने शुरूआती दिनों में वह रात में भगवान जगन्नाथ के सामने और मंदिर के अन्य उत्सवों में नृत्य करती थी। अपने अंतिम दिनों में उसका काम गीत गोविंद का सस्वर पाठ करने तक सीमित रह गया था।
मार्च में एक अखबार में प्रकाशित रपट में कहा गया है कि देश की आखिरी देवदासी शशिमणि, जो कि जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी हुईं थीं, की मृत्यु हो गई है। इसके साथ ही, इस शर्मनाक प्रथा का अंत हो गया है। फ्रेंकोइस बर्नियर (1620-1688) एक फ्रांसीसी चिकित्सक व यात्री थे। मुगल भारत की यात्रा का उनका विवरण, उस समय के इतिहास के बारे में जानने का महत्वपूर्ण स्त्रोत माना जाता है। वे शाहजहां के सबसे बड़े पुत्र
शहजादा दाराशिकोह के व्यक्तिगत चिकित्सक थे और दाराशिकोह की मौत के बाद, वे औरंगजेब के दरबार से लगभग एक दशक तक जुड़े रहे। उन्होंने पुरी की यात्रा की थी। बर्नियर के अनुसार, हर साल पुरी में रथयात्रा के पहले भगवान जगन्नाथ का विवाह एक नई युवती से किया जाता था। विवाह की पहली रात, मंदिर का कोई एक पुजारी उसके साथ संभोग करता था।
ओडिशा में पुरी स्थित प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर की सबसे पुरानी देवदासी
शशिमणी के निधन के साथ ही गुरुवार को इस मंदिर में देवदासी प्रथा का अंत हो गया। शशिमणि 92 साल की थी और वह कई महीनों बीमार रही। हर देवदासी (निसंतान) को किसी भी एक नाबालिग लड़की को गोद लेकर खुद ही नृत्य तथा भक्ति संगीत की
शिक्षा-दीक्षा देकर देवदासी बना देवदासी परंपरा को जीवित रखना होता है। लेकिन शशिमणी ने ऐसा नहीं किया। शशिमणी मात्र 12 साल की छोटी सी उम्र में देवदासी बन गई थी। अपने शुरूआती दिनों में वह रात में भगवान जगन्नाथ के सामने और मंदिर के अन्य उत्सवों में नृत्य करती थी। अपने अंतिम दिनों में उसका काम गीत गोविंद का सस्वर पाठ करने तक सीमित रह गया था।
मार्च में एक अखबार में प्रकाशित रपट में कहा गया है कि देश की आखिरी देवदासी शशिमणि, जो कि जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी हुईं थीं, की मृत्यु हो गई है। इसके साथ ही, इस शर्मनाक प्रथा का अंत हो गया है। फ्रेंकोइस बर्नियर (1620-1688) एक फ्रांसीसी चिकित्सक व यात्री थे। मुगल भारत की यात्रा का उनका विवरण, उस समय के इतिहास के बारे में जानने का महत्वपूर्ण स्त्रोत माना जाता है। वे शाहजहां के सबसे बड़े पुत्र
शहजादा दाराशिकोह के व्यक्तिगत चिकित्सक थे और दाराशिकोह की मौत के बाद, वे औरंगजेब के दरबार से लगभग एक दशक तक जुड़े रहे। उन्होंने पुरी की यात्रा की थी। बर्नियर के अनुसार, हर साल पुरी में रथयात्रा के पहले भगवान जगन्नाथ का विवाह एक नई युवती से किया जाता था। विवाह की पहली रात, मंदिर का कोई एक पुजारी उसके साथ संभोग करता था।
देवदासी प्रथा पर एक घटना : धर्म अभी भी व्यापक जन समुदाय को अज्ञान और अंधविश्वास के अंधकार में धकेलने का कारगर माध्यम बना हुआ है। यह अनेकानेक पाखंडी बाबाओं, भोग-विलास में डूबे धर्माचार्यों और सड़कछाप तोता-पंडितों की कमाई का एक अच्छा जरिया है। धर्म के नाम पर औरतों के शोषण का एक इतिहास है। भारत में धर्म के नाम पर औरतों के यौन शोषण को देवदासी प्रथा के तहत एक व्यवस्थित रूप दिया गया। इस प्रथा के कुछ पहलुओं को हमने पहले प्रकाश में लाया था। उसी कड़ी में dainikbhaskar.com प्रस्तुत कर रहा है देवदासी प्रथा के अंतर्गत होने वाली खुलेआम अश्लील हरकतों की शर्मनाक परिपाटी के बारे में
देवदासियों के साथ सामूहिक अश्लील हरकत कर्नाटक के बेल्लारी जिले के
मुद्दाटनूर और कलकुंबा गांवों में हनुमान जी के मंदिर हैं। इन मंदिरों के अहाते के भीतर बड़े हौजों में होली के दिन रंग भर दिया जाता था। दोपहर बाद गांव के उच्च जातियों के कुलीन युवक गीत गाते वहां पहुंचते थे। दूसरी तरफ, दलित बस्तियों से युवा देवदासियां भी वहां पहुंचती थीं। उन्हें साड़ी और चोली दी जाती थी। ये वस्त्र अत्यंत पारदर्शी हुआ करते थे। देवदासियां सबके सामने ही ये नये कपड़े पहनती थीं।
इसके बाद उन्हें रंग से भिगो दिया जाता था। फिर शुरू होता था उनके साथ सामूहिक छेड़छाड़ का सिलसिला। देवदासियों के साथ जम कर अश्लील हरकतें की जाती थीं। यह सब देर रात तक चलता था। भ्रामक धारणा साल 1985 तक यह अश्लील प्रथा बेरोक-टोक जारी रही। बाद में शासन ने प्रगतिशील विचारों के बुद्धिजीवियों और संगठनों की सहायता से इस पर पाबंदी लगाई। इस अश्लील तमाशे
के पीछे लोगों का यह विश्वास था कि मंदिर में देवदासी के साथ प्रणय-क्रीड़ा करने से गांव पर कोई विपत्ति नहीं आती और सुख-शांति बनी रहती है। सिर्फ दलित देवदासियों के साथ ही छेड़छाड़ खास बात यह है
कि होली के अवसर पर होने वाले इस खेल में सवर्ण समाज की देवदासियां शामिल नहीं होती थीं। सिर्फ दलित जातियों की देवदासियां ही इस अश्लील खेल में शामिल होने के लिए जुटती थीं। उन्होंने इसका कभी भी प्रतिरोध नहीं किया, बल्कि इस रंगोत्सव में वे उत्साह से भाग लेती थीं और अपनी कामुक चेष्टाओं से युवकों को उत्तेजित करने की भी कोशिश करती थीं। साड़ी-अंगिया के साथ धन लाभ भी होली के मौके पर अश्लील छेड़छाड़ के एवज में मिलने वाली साड़ी-अंगिया एक-एक पैसे के लिए मोहताज दलित देवदासियों के लिए बेशकीमती होती थी। यही नहीं, सरेआम उनके बदन से खेलने वाले कुलीन युवक उनकी तरफ कुछ सिक्के भी उछालते थे। इन सिक्कों को लूटने के लिए देवदासियों में होड़-सी मच जाती थी। देर रात होती थी काम-क्रीड़ा इस तमाशे के दौरान कुलीन युवकों को जो देवदासियां भा जाती थीं, उन्हें इशारा कर दिया जाता था। देर रात जब भीड़ छंट जाती थी और चंद युवक व चुनी हुई देवदासियां रह जाती थीं तो मंदिर के प्रांगण में ही शुरू होती थी
काम-क्रीड़ा। इस क्रीड़ा में भाग लेने वाली देवदासियों को अलग से पैसे और कपड़े आदि दिये जाते थे। देवदासियों के लिए अहोभाग्य खुलेआम इस तरह से कुलीन युवकों से शारीरिक संबंध बनाने वाली देवदासियां इसे अपना अहोभाग्य मानती थीं। वो समझती थीं कि अन्य देवदासियों से वे कहीं ज्यादा सुंदर हैं और उन पर देवी की विशेष कृपा है, तभी उन्हें चुना गया। जाहिर है, ये देवदासियां होली के अलावा सामान्य दिनों में भी कुलीन युवकों की काम वासना तृप्त कर कुछ पैसे और पुरस्कार आदि पा लेती थीं। इस परंपरा के अवशेष मौजूद ऐसी बात नहीं कि शासन द्वारा रोक लगा दिये जाने के बाद यह परंपरा पूरी तरह खत्म हो गई।
अभी भी बदले हुए रूपों में इस परंपरा के अवशेष दिखाई पड़ते हैं। समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग ने अपने मनोरंजन और भोग-विलास के लिए ऐसी परंपरा को कायम रखने की पुरजोर कोशिश की है। होली के मौके पर अभी भी दलित वर्ग की युवतियों के साथ छेड़छाड़ और दुराचार आम बात है। वैसे, अब कर्नाटक के गांवों मे देवदासियां कम ही मिलती हैं। अधिकांश जवान देवदासियां देह-व्यापार के लिए महानगरों में पलायन कर चुकी हैं। देवदासियों पर कन्नड़ में फिल्म धारवाड़ यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर डॉ. एस.एस.शेट्टर ने देवदासी विषय पर गहन शोध किया है। उन्होंने कन्नड़ भाषा में देवदासियों पर फिल्म भी बनाई है। यह इस विषय पर बनी पहली फिल्म है। नई दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स ने 'रिमेंबरिंग देवदासीज' नाम से कई सीडी तैयार की है। इनसे धर्म के नाम पर देवदासियों के यौन
उत्पीड़न एवं उनके जीवन के विविध पहलुओं की जानकारी मिलती है। प्रमुख पुजारी, सहायक पुजारियों, प्रभावशाली अधिकारियों, सामंतों एवं कुलीन अभ्यागतों के साथ संभोग करती थीं, (दैनिक भास्कर)
देवदासियों के साथ सामूहिक अश्लील हरकत कर्नाटक के बेल्लारी जिले के
मुद्दाटनूर और कलकुंबा गांवों में हनुमान जी के मंदिर हैं। इन मंदिरों के अहाते के भीतर बड़े हौजों में होली के दिन रंग भर दिया जाता था। दोपहर बाद गांव के उच्च जातियों के कुलीन युवक गीत गाते वहां पहुंचते थे। दूसरी तरफ, दलित बस्तियों से युवा देवदासियां भी वहां पहुंचती थीं। उन्हें साड़ी और चोली दी जाती थी। ये वस्त्र अत्यंत पारदर्शी हुआ करते थे। देवदासियां सबके सामने ही ये नये कपड़े पहनती थीं।
इसके बाद उन्हें रंग से भिगो दिया जाता था। फिर शुरू होता था उनके साथ सामूहिक छेड़छाड़ का सिलसिला। देवदासियों के साथ जम कर अश्लील हरकतें की जाती थीं। यह सब देर रात तक चलता था। भ्रामक धारणा साल 1985 तक यह अश्लील प्रथा बेरोक-टोक जारी रही। बाद में शासन ने प्रगतिशील विचारों के बुद्धिजीवियों और संगठनों की सहायता से इस पर पाबंदी लगाई। इस अश्लील तमाशे
के पीछे लोगों का यह विश्वास था कि मंदिर में देवदासी के साथ प्रणय-क्रीड़ा करने से गांव पर कोई विपत्ति नहीं आती और सुख-शांति बनी रहती है। सिर्फ दलित देवदासियों के साथ ही छेड़छाड़ खास बात यह है
कि होली के अवसर पर होने वाले इस खेल में सवर्ण समाज की देवदासियां शामिल नहीं होती थीं। सिर्फ दलित जातियों की देवदासियां ही इस अश्लील खेल में शामिल होने के लिए जुटती थीं। उन्होंने इसका कभी भी प्रतिरोध नहीं किया, बल्कि इस रंगोत्सव में वे उत्साह से भाग लेती थीं और अपनी कामुक चेष्टाओं से युवकों को उत्तेजित करने की भी कोशिश करती थीं। साड़ी-अंगिया के साथ धन लाभ भी होली के मौके पर अश्लील छेड़छाड़ के एवज में मिलने वाली साड़ी-अंगिया एक-एक पैसे के लिए मोहताज दलित देवदासियों के लिए बेशकीमती होती थी। यही नहीं, सरेआम उनके बदन से खेलने वाले कुलीन युवक उनकी तरफ कुछ सिक्के भी उछालते थे। इन सिक्कों को लूटने के लिए देवदासियों में होड़-सी मच जाती थी। देर रात होती थी काम-क्रीड़ा इस तमाशे के दौरान कुलीन युवकों को जो देवदासियां भा जाती थीं, उन्हें इशारा कर दिया जाता था। देर रात जब भीड़ छंट जाती थी और चंद युवक व चुनी हुई देवदासियां रह जाती थीं तो मंदिर के प्रांगण में ही शुरू होती थी
काम-क्रीड़ा। इस क्रीड़ा में भाग लेने वाली देवदासियों को अलग से पैसे और कपड़े आदि दिये जाते थे। देवदासियों के लिए अहोभाग्य खुलेआम इस तरह से कुलीन युवकों से शारीरिक संबंध बनाने वाली देवदासियां इसे अपना अहोभाग्य मानती थीं। वो समझती थीं कि अन्य देवदासियों से वे कहीं ज्यादा सुंदर हैं और उन पर देवी की विशेष कृपा है, तभी उन्हें चुना गया। जाहिर है, ये देवदासियां होली के अलावा सामान्य दिनों में भी कुलीन युवकों की काम वासना तृप्त कर कुछ पैसे और पुरस्कार आदि पा लेती थीं। इस परंपरा के अवशेष मौजूद ऐसी बात नहीं कि शासन द्वारा रोक लगा दिये जाने के बाद यह परंपरा पूरी तरह खत्म हो गई।
अभी भी बदले हुए रूपों में इस परंपरा के अवशेष दिखाई पड़ते हैं। समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग ने अपने मनोरंजन और भोग-विलास के लिए ऐसी परंपरा को कायम रखने की पुरजोर कोशिश की है। होली के मौके पर अभी भी दलित वर्ग की युवतियों के साथ छेड़छाड़ और दुराचार आम बात है। वैसे, अब कर्नाटक के गांवों मे देवदासियां कम ही मिलती हैं। अधिकांश जवान देवदासियां देह-व्यापार के लिए महानगरों में पलायन कर चुकी हैं। देवदासियों पर कन्नड़ में फिल्म धारवाड़ यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर डॉ. एस.एस.शेट्टर ने देवदासी विषय पर गहन शोध किया है। उन्होंने कन्नड़ भाषा में देवदासियों पर फिल्म भी बनाई है। यह इस विषय पर बनी पहली फिल्म है। नई दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स ने 'रिमेंबरिंग देवदासीज' नाम से कई सीडी तैयार की है। इनसे धर्म के नाम पर देवदासियों के यौन
उत्पीड़न एवं उनके जीवन के विविध पहलुओं की जानकारी मिलती है। प्रमुख पुजारी, सहायक पुजारियों, प्रभावशाली अधिकारियों, सामंतों एवं कुलीन अभ्यागतों के साथ संभोग करती थीं, (दैनिक भास्कर)
आधुनिक भारत में देवदासी प्रथा?
"कम उम्र में लड़कियों को देवदासी बनाने के पीछे अंधविश्वास के साथ-साथ गरीबी भी एक बड़ी वजह है। कम उम्र की लड़कियों को उनके माता-पिता ही देवदासी बनने को मजबूर करते हैं, क्योंकि ये लड़कियां ही उनकी आय का एकमात्र जरिया होती हैं।" आज भी कई प्रदेशों में देवदासी प्रथा का चलन जारी है। हमारे आधुनिक समाज में छोटी बच्चियों को धर्म के नाम पर देवदासी बनने के लिए मजबूर किया जाता है। इतनी कम उम्र में लड़कियों को देवदासी बनाने के पीछे अंधविश्वास के साथ-साथ गरीबी भी एक बड़ी वजह है। कम उम्र की लड़कियों को उनके माता-पिता ही देवदासी बनने को मजबूर करते हैं। क्योंकि ये लड़कियां ही उनकी आय का एकमात्र जरिया होती हैं। जब लड़कियों का मासिक धर्म शुरू हो जाता है, तो उनके माता पिता लड़की को किसी जमीदार या जरूरत वाले व्यक्ति को सौंप देते हैं। वो व्यक्ति बदले में उस लड़की के परिवार की आंशिक या पूरी तरह से मदद करता है। लेकिन मदद तभी तक जारी रहती है जब तक वो लड़की से शारीरिक संबंध स्थापित करता रहता है। जो लड़कियां वर्जिन होती हैं, उनकी मांग सबसे अधिक होती है और उन्हें बाकी लड़कियों से ज्यादा पैसे दिए जाते हैं।देवदासियों में कम उम्र में ही AIDS जैसी गंभीर बीमारी का
खतरा काफी ज्यादा होता है और कई बार उन्हें गर्भ भी ठहर जाता है जिसके बाद वे चाह कर भी इस गंदगी से बाहर नहीं निकल पातीं। जिस उम्र में लड़कियों को देवदासी बनाया जाता है उस वक्त उन्हें इसका मतलब तक पता नहीं होता है। 12-15 साल में लड़कियों का मासिक धर्म शुरू हो जाता है और 15 पूरा होने से पहले उनके साथ शारीरिक संबंध बनाना शुरू कर दिया जाता है। इतनी कम उम्र में न तो वे इस तरह के संबंधों के लिए परिपक्व होती हैं और न ही उन्हें सेक्स से संबंधित बीमारियों के बारे में पता होता है। देवदासियों में कम उम्र में ही AIDS जैसी गंभीर बीमारी का खतरा काफी ज्यादा होता है
और कई बार उन्हें गर्भ भी ठहर जाता है, जिसके बाद वे चाह कर भी इस गंदगी से बाहर नहीं निकल पातीं। जब ये देवदासियां तीस की उम्र में पहुंच जाती हैं, तो इन्हें 'काम' के लायक नहीं समझा जाता। फिर उनके पास शरीर को बेचने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता। फिर उन्हें सड़क और हाइवे पर चलने वाले ड्राइवरों तक से संबंध स्थापित करके अपना पेट पालना पड़ता है। जिसके एवज में उन्हें मामूली रकम मिलती है। इन ड्राइवरों से HIV का भी सबसे ज्यादा खतरा होता है
दोस्तो देव दासी अकसर मंदिर के पुजारी की हवश का शिकार
होती है और जब पुजारी का मन भर जाता तो वो अन्य लोगो को भी इस देव दासी का भोग
करने के लिए भेजता और कमाई भी करता था/ तो ईन देवदासियों के बच्चे होना भी आम बात है पर उन बच्चो को कोई बाप का नाम नही देता था ना मंदिर का पुजारी और ना ही वो लोग जो देवदासियों को अपनी
मर्दानगी से रौंदते है….. उन बच्चो को भगवान का बच्चा कहा जाता था यानी के “हरीजन” जो पिछड़े लोगो के ऊपर जाति बना के थोप दिया गया है हरीजन शब्द देवदासियों मे से पैदा हुआ शब्द हे जिसे गांधी ने पिछड़े वर्ग के ऊपर जाति बना के थोप दिया जिसको आज भी पिछड़े वर्ग लोग ढो रहे है दोस्तो हरीजन का एक मतलब “बन्दर के बच्चे” भी होता है.. क्योकि संस्कृत में हरी बन्दर को कहा जाता है… देवदासियों के बच्चों के लिए प्रयोग होने वाला शब्द कुछ मनुवाद के पुजारियों पिछड़े लोगो के ऊपर थोप दिया जिसका सही अर्थ होता है “नाजायज” जिसके बाप का पता ना हो उसे हरीजन कहा गया… जो दोस्त इस बात से अनजान हो और अगर
किसी पिछड़े वर्ग को हरीजन कहने से पहले हकीकत जरुर जान ले.. इस शब्द का उपयोग कभी भी किसी के लिए ना करे और ब्राह्मणो के पाखंड की हकीकत जाने
करने के लिए भेजता और कमाई भी करता था/ तो ईन देवदासियों के बच्चे होना भी आम बात है पर उन बच्चो को कोई बाप का नाम नही देता था ना मंदिर का पुजारी और ना ही वो लोग जो देवदासियों को अपनी
मर्दानगी से रौंदते है….. उन बच्चो को भगवान का बच्चा कहा जाता था यानी के “हरीजन” जो पिछड़े लोगो के ऊपर जाति बना के थोप दिया गया है हरीजन शब्द देवदासियों मे से पैदा हुआ शब्द हे जिसे गांधी ने पिछड़े वर्ग के ऊपर जाति बना के थोप दिया जिसको आज भी पिछड़े वर्ग लोग ढो रहे है दोस्तो हरीजन का एक मतलब “बन्दर के बच्चे” भी होता है.. क्योकि संस्कृत में हरी बन्दर को कहा जाता है… देवदासियों के बच्चों के लिए प्रयोग होने वाला शब्द कुछ मनुवाद के पुजारियों पिछड़े लोगो के ऊपर थोप दिया जिसका सही अर्थ होता है “नाजायज” जिसके बाप का पता ना हो उसे हरीजन कहा गया… जो दोस्त इस बात से अनजान हो और अगर
किसी पिछड़े वर्ग को हरीजन कहने से पहले हकीकत जरुर जान ले.. इस शब्द का उपयोग कभी भी किसी के लिए ना करे और ब्राह्मणो के पाखंड की हकीकत जाने
(फेसबुक)
अब ईसाई धर्म के तहत ही देख लीजिए चर्च और कॉन्वेंटस में नन रहने लगीं जो चिरकुमारियों के नाम से जानी जाने लगीं ! कैथोलिक चर्च में भी सैक्स से सम्बंधित खेल के खुले-खुलासे होते आ रहे है ! दूर क्यों जाते है कुछ दिनों पहले ही एक नन ने पादरियों के व्यभिचार का सनसनीखेज खुलासा किया था ! नन ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि पादरी ननों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाते हैं ! इससे जब वह गर्भवती हो जाती है !
तो बच्चों को गर्भ में ही मार देते है ! बौद्ध धर्म की कारगुजारियां पूरी तरह तंत्र पर ठहर गई और तंत्र प्रणाली में औरतों की देह को मोक्ष का नाम देकर औरतों को छला जाने लगा !जैन धर्म के संतों के साथ साध्वियां भी होती थी उन्हे भी छला जाने लगा।
तो बच्चों को गर्भ में ही मार देते है ! बौद्ध धर्म की कारगुजारियां पूरी तरह तंत्र पर ठहर गई और तंत्र प्रणाली में औरतों की देह को मोक्ष का नाम देकर औरतों को छला जाने लगा !जैन धर्म के संतों के साथ साध्वियां भी होती थी उन्हे भी छला जाने लगा।
देवदासी से जो संतानें पैदा होती थीं, उन्हें नाजायज या अवैध कह कर फिंकवा दिया जाता था। बाद में महात्मा गांधी ने उन्हें ”हरिजन” नाम दिया। इस प्रथा को सुन-जानकर किसके
रोंगटे खड़े नहीं होंगे? अगर किसी के रोंगटे नहीं खड़े होंगे तो वह है ब्राह्मण, फिर क्षत्रिय और वैश्य, क्योंकि ये लोग भारत में अपनी पत्नी, माँ, पुत्री जैसी कोई स्त्री नहीं लाये थे, यहाँ की मूलनिवासी स्त्रियों के साथ अय्याशी भी करते थे तथा बनी हुई अपनी पत्नी, माँ, पुत्री पर तमाम अमानवीय प्रथाएं लाद कर उन्हें प्रताड़ित भी करते थे।
रोंगटे खड़े नहीं होंगे? अगर किसी के रोंगटे नहीं खड़े होंगे तो वह है ब्राह्मण, फिर क्षत्रिय और वैश्य, क्योंकि ये लोग भारत में अपनी पत्नी, माँ, पुत्री जैसी कोई स्त्री नहीं लाये थे, यहाँ की मूलनिवासी स्त्रियों के साथ अय्याशी भी करते थे तथा बनी हुई अपनी पत्नी, माँ, पुत्री पर तमाम अमानवीय प्रथाएं लाद कर उन्हें प्रताड़ित भी करते थे।
इस कुप्रथा का आयोजन
1. कर्नाटक में तो इसके साथ नग्न-पूजा का एक उत्सव भी जुड़ गया। बेल्लारी और चंद्रगुत्ती में हज़ारों की संख्या में स्त्री और पुरुष पूर्णत: नग्न होकर नदी में स्नान करने के बाद अपनी मनौती पूरी कराने देवी-दर्शन को जाते। इसे कवर करने के लिए देशी और विदेशी मीडिया का वहां जमावड़ा लग जाता।
2. कर्नाटक के बेलगाम जिले के सौदती स्थित येल्लमा देवी के मंदिर में हर वर्ष माघ पूर्णिमा (रण्डी पूर्णिमा) पर किशोरियों को देवदासियाँ बनाया जाता है। इस दिन लाखों की संख्या में भक्त दलित व आदिवासी लड़कियों की देह के साथ सरेआम छेड़-छाड़ करते हैं। शराब के नशे में अपनी काम-पिपासा बुझाते हैं। तेलंगाना क्षेत्र में दलित महिलाओं को देवदासी बनाने या देवी-देवताओं के नाम पर मंदिरों में छोड़े जाने की आसुरी कुरीति अभी भी जारी है।
प्रश्नोत्तरी अथवा शंका-समाधान :
1. ब्राह्मण या किसी सवर्ण की कन्या/स्त्री देवदासी क्यों नहीं? यूरेशियाई (ब्राह्मण) अपनी माँ, पत्नी, बेटी किसी स्त्री को भारत में नहीं लाये थे।
उनकी नियति मूलनिवासी स्त्रियों के साथ अय्याशी और अपनी संख्या बढ़ाने के लिए अपनाई गई सुंदर स्त्रियों से संतानें पैदा करके मूलनिवासियों को अपनी रची परंपराओं को दहशत व जबरन लाद कर कमजोर करने की थी। वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य 3 ही वर्ण रखे थे, परन्तु संख्या में बहुत अधिक होने से मूलनिवासियों को चौथे वर्ण “शूद्र” का नाम देकर हजारों (6743) जातियों-उपजातियों में बांटा और रोजी-रोटी-बेटी के संबंध अपनी ही जाति में सीमित करके उन्हें एकता व संगठन से वंचित रखा। लिहाजा उनहोंने कमजोर और भयभीत होकर हर कुप्रथा को माना। तब ब्राह्मण अपनाई गई स्त्रियों व उनसे पैदा हुई स्वकन्याओं को कुप्रथाओं की शिकार कैसे होने देते!
2. मन्दिरों पर ब्राह्मणों की ही बपौती क्यों? ब्राह्मणों के आने से पूर्व भारत में मंदिर-व्यवस्था नहीं थी। यह उनकी साजिश थी जिसके बल पर भगवान व देवी-देवता के नाम पर भयभीत करके अपनी मनमानी, सूझबूझ व शक्ति से ब्राह्मणों ने सिर्फ अपने को सर्वोच्च कह कर समूची आध्यात्मिक व्यवस्था अपने तक ही सीमित रखी। आज आरक्षण के मामले में ज्योतिषाचार्य पवन सिन्हा ने पहल की कि मन्दिरों के ब्राह्मण पुजारियों/पदाधिकारियों के स्थान पर योग्य दलित क्यों न रखे जाएँ। इस पर ब्राह्मण व हिन्दूधर्म के धर्मगुरु और ठेकेदार बौखला गये। ब्राह्मण मानवता, समानता, समता, जातिविहीनता,
सद्धर्म को किसी भी कीमत पर स्थापित नहीं होने देंगे। वहीं न्यायालय और प्रशासन भी ब्राह्मणधर्म के अन्धविश्वास में आड़े नहीं आता। इस बपौती की एक ही काट है कि जिस प्रकार सवर्ण अंबेडकर की मूर्तियों को खंडित करते या उखाड़ फेंकते हैं, शूद्र एकमत
सन्दर्भ सूचि
5.(फेसबुक)
7.BBC NEWS
8.दृष्टि
5 Comments
I just wanted to say that I love every time visiting your wonderful post! Very powerful and have true and fresh information.Thanks for the post and effort! Please keep sharing
ReplyDeletedaily Current Affairs||current affairs quiz||syllabus of upsc
goo d
ReplyDeleteSharma Academy Best UPSC, IAS, MPPSC Coaching in Indore Providing MPPSC Notes, Digital Course, Test series, Online Coaching Classes in Indore, Best Coaching For MPPSC in Indore. Sharma Academy is the fastest growing UPSC, IAS, MPPSC coaching classes in indore because our multiple factors are behind our success, we are popular among the student for our classroom programs and mppsc distance learning program is available in many formats like mppsc Table course, mppsc SD Card course and mppsc Pendrive course and having latest mppsc toppers in our team to educate students, Highly experienced and educated faculties staff, Student also can purchase notes, books and MPPSC Online Coaching classes for mppsc published by sharma academy Explanation in very easy language from basic level to high level.
ReplyDeletehttps://www.sharmaacademy.com/
Sharma Academy Best UPSC, IAS, MPPSC Coaching in Indore Providing MPPSC Notes, Digital Course, Test series, Online Coaching Classes in Indore, Best Coaching For MPPSC in Indore. Sharma Academy is the fastest growing UPSC, IAS, MPPSC coaching classes in indore because our multiple factors are behind our success, we are popular among the student for our classroom programs and mppsc distance learning program is available in many formats like mppsc Table course, mppsc SD Card course and mppsc Pendrive course and having latest mppsc toppers in our team to educate students, Highly experienced and educated faculties staff, Student also can purchase notes, books and MPPSC Online Coaching classes for mppsc published by sharma academy Explanation in very easy language from basic level to high level.
ReplyDeletehttps://www.sharmaacademy.com/
thanks
ReplyDelete